सोमवार, 6 फ़रवरी 2017

उदयपुर यात्रा का दूसरा दिन (27.02.2016) :-
आज हमारा कुम्भलगढ किला एवं रणकपुर जैन मंदिर देखने का कार्यक्रम था.  सुबह करीब 8.00 बजे के आसपास निकल पडे.  कुम्भलगढ का किला उदयपुर से लगभग 100 किमी की दूरी पर राजसमंद जिले मे स्थित है. चूकि हमने उदयपुर में खाना नही खाया था अत: किले से लगभग 10 किमी पहले .... होटल में खाने के लिये रूके.  फिर 11.00 बजे के आसपास हम कुम्भलगढ किले पहुंच गये.  यह किला राजस्थान के भव्य किलों में से एक है तथा इसकी भव्यता का अंदाजा हमे इसके पास पहुंचने से 3-4 किमी पहले से ही होने लगा.  किले के मुख्य द्वार को राम-पोल कहा जाता है तथा इसके बाहर ही गाडियों की पार्किंग बनी हुई है.  किले का प्रवेश शुल्क रू.10.00 है. थोडा सा कुम्भलगढ़ किले का इतिहास, हमारे-आपके जानकारी को ताजा करने के लिये :- इस किले का निर्माण महाराणा कुम्भा द्वारा, सम्राट अशोक के द्वितीय पुत्र संप्रति के बनाये दुर्ग के अवशेषों पर सन 1443-1458 (15 सालों में) में अडावली की पहाडियों के बीच, कई घाटियों व पहाड़ियों को मिला कर, करवाया गया था.  किला समुद्रतल से लगभग 1100 मीटर ऊचाईं पर स्थित है. ऐसा कहा जाता है कि इस किले के दुर्ग, जो लगभग 30 किमी के ब्यास मे फैला है, की लम्बाई (लगभग 36 किमी) चीन के दीवार के बाद विश्व में दुसरे नंबर पर है. किले के अंदर 350 से ज्यादा जैन व हिंदु मंदिर है. इस किले की दीवार की चौड़ाई लगभग 15 फीट है. इस किले में वैसे तो कई द्वार है पर सात मुख्य और बड़े द्वार हैं. इनमें से सबसे बड़ा द्वार राम पोल के नाम से जाना जाता है.  इसके अलावा हनुमान पोल, पाघरा पोल, हल्ला पोल, तोप-खाना पोल, निम्बू पोल, एवं भैरव पोल हैं. किले के अंदर ऊँचाई वाले स्थानों पर महल एवं आवासीय इमारते बनायीं गई, जबकि समतल भूमि का उपयोग  खेती-बाडी के लिये किया जाता था. ढलान वाली जगहों पर कई जलाशय बनाये गये ताकि किले के अंदर पानी की कमी नही हो.  किले के अंदर कई महल है जिनमें बादल महल और कुम्भा महल प्रमुख है. इस किले पर अनेको आक्रमण हुए (जिसमे गुजरात का अहमद शाह, महमूद ख़िलजी, अकबर आदि शामिल थे) पर कोई भी युद्ध में इसे जीत नही सका, इस कारण इसे अजेयगढ भी कहा जाता है. महाराणा प्रताप का जन्म इसी किले के अंदर हुआ था तथा हल्दीघाटी के युद्ध में पराजय के पश्चात महाराणा प्रताप काफी समय तक इस किले के अंदर रहे. पन्ना धाय ने महाराणा उदय सिंह का पालन-पोषण इसी किले के अंदर किया था.  किले के निर्माण से संबंधित एक दिलचस्प किंवदंती प्रचलित है. जब महाराणा कुम्भा ने सन 1443 में किले का निर्माण शुरू करवाया तो अनेको अड़चनों के कारण निर्माण कार्य  आगे बढ़ ही नहीं पा रहा था. एक संत ने महाराणा को बताया कि अगर कोई मनुष्य स्वेच्छा से अपनी बलि दे तभी किले का काम संपूर्ण हो सकेगा.  यही नही बल्कि संत ने खुद को बलिदान के लिए भी प्रस्तुत कर दिया. संत ने कहा कि चलते चलते जहां भी वह रुके वहीं उसकी बलि दे दी जाए. बलि वाले स्थान पर देवी का मंदिर बनावाया जाए. कहते हैं कि संत की बलि के पश्चात ही किले का कार्य पूरा किया जा सका. जिस स्थान पर बलि दी गई वहां मुख्य द्वार हनुमान पोल  बना है तथा इससे घुसते ही बायीं तरफ गणेश जी का मंदिर जबकि दायीं तरफ काफी उचांई पर जैन मंदिर बनाया गया है.

गणेश जी के मंदिर के पास से उपर महल में जाने का रास्ता शुरु होता है. महल लगभग 1000 मीटर की उंचाई पर स्थित है. रास्ते में कई दरवाजे जैसे कि भैरव पोल, पघडा पोल तथा नीम्बू पोल आते हैं.  आप जैसे-जैसे उंचाई की तरफ चलेगें, दुर्ग के चारों ओर की पहाडिओं तथा उसमें अवस्थित मंदिरों एवं अन्य रचनाओं का विहंगम दृश्य दिखाई देगा. फरवरी का महीना होने के बावजूद धुप काफी तेज लग रही थी तथा हमारा पीने का पानी बीच में ही समाप्त हो गया. खैर हम आराम-आराम से चढते हुए लगभग 20-25 मिनट में उपर पहुंच गये.  महल के अधिकतर हिस्सों को तो बंद ही रखा गया है. जो हिस्से खुले थे वे तो बस खाली कमरे थे जिनमे खुब ठंढी ताजी हवा आ रही थी तथा मेरी तो एक नींद सोने की इच्छा हो रही थी. महल से नीचे उतरते समय बावन देवी मंदिर में दर्शन करते हुए आये.  बावन देवी मंदिर के अंदर गर्भगृह में घुप्प अंधेरा था तथा अंदर एक महिला पुजारन ने दिये की लौ में हमलोगों को देवी के दर्शन करवाये. नीचे उतर कर गेट के दायीं तरफ स्थित वेदी मंदिर जो कि एक जैन मंदिर है मे दर्शनो हेतु गये. यह भी अच्छी खासी उंचाई पर स्थित है.  करीब 2.00 बजे के आस-पास हम कुम्भलगढ से रणकपुर के लिये प्रस्थान कर गये.

रणकपुर पाली जिले के देसुरी तहसील में अरावली के पहाडी के मनोरम घाटियों में स्थित एक गांव है.  कुम्भलगढ से इसकी दूरी लगभग 40 किमी है तथा हम करीब 2.30 बजे रणकपुर जैन मंदिर पहुंच गये.  चारों ओर से पहाडियों से घिरा यह जैन मंदिर काफी भव्य, शांत तथा मनोरम वातावरण में स्थित है. प्रथम जैन तीर्थंकर आदिनाथ जी को समर्पित यह मंदिर जैन धर्म के तीर्थस्थलों में काफी महत्वपूर्ण स्थान रखता है.


इस मंदिर का निर्माण सन 1439 में राणा कुंभा के शासनकाल में हुआ था. मुख्‍य मंदिर एक चारमुखी मंदिर है जिसके प्रवेश द्वार चारों दिशाओं में खुलते है. इसमें भगवान आदिनाथ जी की चार विशाल मूर्तियां प्रतिष्ठित है. संगमरमर से बने इस खूबसूरत मंदिर में 29 विशाल कमरे हैं जहां 1444 खंबे लगे हैं जो अपनी खूबसूरत नक्काशी के लिए प्रसिद्ध है. कहा जाता है कि इस मंदिर का निर्माण करीब 50 वर्षों में पूरा हुआ तथा इसके निर्माण में 99 लाख रुपए का खर्च आया था. परिसर के अंदर कई अन्य मंदिर भी बने है जिसमे सूर्य मंदिर महत्वपूर्ण है. रणकपुर मंदिर के अंदर यात्रियों के लिये एक उत्तम भोजनालय बनाया गया है जिसमें काफी सस्ते दर पर उत्तम भोजन की व्यवस्था है.  हमने शाम का भोजन इसी भोजनालय में कर लिया.  दर्शन तथा भ्रमण के बाद हम लगभग 6.00 बजे उदयपुर के लिये (लगभग 100 किमी दूर) वापस रवाना हो गये.




































अब रणकपुर की तस्वीरें